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Saturday 8 May 2021

पालीवालों_का_निष्क्रमण

 #पालीवालों_का_निष्क्रमण 

                   ( ‘रावळ म्होंने अेकर जैसाणों बता ||’ )

इतिहासकार जेम्स कर्नल टॉड के अनुसार गढ़ नानणा के  ‘नानणा ब्राह्मण’ प्रसिद्ध व्यावसायी थे| संभवत: यह नानणा शब्द ही नन्दवाना के मूल में है | मध्यकाल की अराजकतावादी परिस्थितियों, धर्मान्धता, आतंक, लूट और अत्याचारों से तंग आकर गढ़ नानणा छोड़कर मारवाड़ के पाली शहर में आकर बस गए | ये व्यापार और कृषि कार्यों में निष्णात थे | लगभग संख्या बल में ये लाखों में थे, पर शांतिप्रिय और व्यावसायिक गतिविधियों में होने के कारण अरावली क्षेत्र आदिवासी प्राय: इनको लूट लेते थे | पाली में बसने के कारण ये ‘पालीवाल’ कहलाए |

प्राचीन काल से ही पाली समुद्र-तट के बंदरगाहों और उत्तर भारत के नगरों के बीच एक महत्वपूर्ण व्यावसायिक स्थल था | बंदरगाहों से आने वाला माल चाहे वह अरब-अफ्रीका का हो, चाहे फारस-यूरोप का हो पाली होकर उत्तर भारत जाता था | इसी तरह भारत और तिब्बत का माल पाली होकर बिणज के काफिलों के रूप में मध्य एशिया और चीन तक पहुँचता था | चीन को अफीमची बनाने वाले जैसलमेर के सुप्रसिद्ध ‘पटुवों व्यावसायियों’  का यही मार्ग था – मालवा से पाली जैसलमेर होता हुआ मध्य एशिया और चीन तक | इसी धन से ‘पटुवों की हवेलियाँ’ बनी | समुद्र तट के बंदरगाहों से हाथीदांत, खजूर, चंदन, रेशम, सामान्य कपड़ा और अन्य सामान पाली आता था | इसी तरह मुलतान, बहावलपुर, देरावर, से सूखे मेवे, हींग, आल ( रंग का मशाला ), मुल्तान की छींट, सज्जी (खार), लकड़ी आदि आते थे | काठियावाड़-भुज से घोड़े और तलवारें आदि आने का यही व्यावसायिक मार्ग था | काछेला चारण घोड़ों का व्यवसाय करते थे |  बनजारे अपनी बाळदों में पूरी सुरक्षा रख कर माल एक स्थान से दूसरे स्थान पहुंचाते थे | कहा भी है –

‘मतवाळा री गोरड़ी, बिणजारा रौ बित्त |

बाघण रै गळ बाड़लौ, मरै सो घालै हत्थ |’

( वीर योद्धा की स्त्री, बंजारे का माल, बाघिन के गले की कंठी में हाथ वही डालता है जिसे मरना होता है | )

किंवदंती है कि राठौड़ सीहा तीर्थयात्री की तरह जब पाली रुके तो इन पालीवाल ब्राह्मणों ने आदिवासियों के उपद्रवों से सुरक्षा चाही | बदले में वे उन्हें पर्याप्त धन देने को भी तैयार हुए | राठौड़  सीहा ने पालीवालों की सुरक्षा तो की, पर आसपास के गाँवों पर भी कब्जा कर  लिया | 

सुलतान बलबन के शासनकाल में पाली पर आक्रमण हुआ | हजारों की संख्या में पालीवाल और अन्य लोग मारे गए | सीहाजी राठौड़ ने बीठू गाँव में सन 1273 में  सुलतान बलबन की सेना का मुकाबला करते हुए वीरगति पाई | इस मारकूट और हत्याओं से शांतिप्रिय पालीवालों की पाली छूट गई | उन्होंने जैसलमेर रियासत कके ओळा गाँव में बसेरा किया | आसपास के लोग अब उन्हें ‘नानणा ब्राह्मण’ नहीं कह कर पालीवाल शब्द से सम्बोधित करने लगे | इस बीच राठौड़ों ने अब अपनी ताकत बढा ली थी | पालीवालों ने उन पर जो शर्तें रखी थी, वे उनका उल्लंघन करने लगे | उन्होंने भाद्राजून परगने के चौरासी गांवों पर कब्जा कर लिया | जैसलमेर के सीमान्त गाँवों कोडाणा आदि पर भी कब्जा कर लिया | पालीवाल इससे भी आहत हुए और बचेखुचे वे जैसलमेर चले गए |

जैसलमेर रियासत में उन्होने नियमित कर चुकाकर चौरासी खैड़ों (गाँवों) में अपनी हैसियत कायम की | जैसलमेर के राजा से उन्होंने भूमिकर, सम्पदाकर व व्यापार पर लगने वाला कर (हारुल) चुकाने के लिए समझौता किया | खाभा (भावनगर) और कुलधरा उनकी बड़ी व्यावसायिक मंडियां थी | उनके गाँवों में भी पत्थर के पक्के मकान थे | मकानों में स्थापत्य का एक सा तरीका था | प्रत्येक मकान में तलघर थे | इन तलघरों में रूपये-पैसे और स्वर्ण मुद्राएं रखी जाती थी | बाहर बैलगाड़ी रखने के लिए पक्की गडाळ ( गाड़ी रखने की जगह) होती थी | गाड़ी को बाहर खड़ा कर इसी में पुरुषों की सभा-बैठक भी कर ली जाती थी | गायों के चरने का नियत जगह ठाँण होता था | घर के अंदर रसोईघर, चौक, पठियाळ और चक्की रखने की निश्चित जगह होती थी | 

    गाँवों में उत्तर-दक्षिण समानांतर बड़ी गलियाँ होती थी| थार में हवा चलने के रुख को देख कर इस तरह की बसावट की गई थी | घरों के अंदर और बाहर कलात्मक शिल्प होता था | गाँव के बीच में मन्दिर व बैठक की छतरी भी हुआ करती थी | उनके गाँवों में राजपूतों को छोड़कर दूसरी सारी जातियां निवास करती थी | पालीवाल वैज्ञानिक खेती में निष्णात थे | जैसलमेर में उन्होंने बर्षा के पानी को रोक कर बड़े बड़े खड़ीण बांधे | उसमें वे व्यावसायिक फसलें उगाते थे | जैसलमेर रियासत का वह काल स्वर्णिम काल था |

   पर एकाएक जैसलमेर रियासत और पालीवालों को नजर लग गई | जैसलमेर रियासत का एक दीवान था मोहता सालमसिंह | यह माहेश्वरी वैश्य था, जिसके पूर्वज झाला राजपूत थे | वे गुजरात के हलवद से जैसलमेर रियासत में आये थे | रावल मंध के समय एक भाई माहेश्वरी बन गया था और राजा ने परंपरागत रूप से दीवान का पद इस परिवार को आरक्षित कर दिया था | इसलिए मोहता सालमसिंह अराजक और क्रूर बन कर प्रजा को तंग करने लगा था | तत्कालीन राजा उसके हाथों में कठपुतली था | असली शासन मोहता सालमसिंह का था| यही पालीवालों के जैसलमेर से पलायन का कारण बना | 

  मोहता सालमसिंह अराजक और क्रूर तो था ही, विलासी और अय्यास भी था | उसने छह-सात शादियाँ कर राखी थी | पालीवालों के चौरासी गाँवों के मुखिया की लड़की पर उसकी नजर थी | उसने मुखिया की लड़की से विवाह का प्रस्ताव रखा| काठौड़ी जो मुखिया गाँव था वहां चौरासी इकट्ठी हुई, दीवान के उस निर्लज्ज प्रस्ताव को चौरासी गाँवों के लोगों ने ठुकरा दिया | फिर दीवान ने पालीवालों पर अनुचित कर लगाए | उन्हें तंग करना शुरू किया | वह जबरदस्ती शादी करने पर उतारू हो गया | शांतिप्रिय पालीवालों ने इज्जत बचाने के लिए एक ही रात में जैसलमेर रियासत छोड़ दी | वह पूर्णिमा की रात थी | चौरासी गाँवों ने एक साथ पलायन किया | उन्होंने अपने साथ जो ले जा सकते थे लिया, बाकी सारा कुछ यथावत छोड़ गए | चूल्हे पर उबलते दूध से लेकर ठाण पर चरती गायों तक को वहीं छोड़ा | 

  यह उनका तीसरा पलायन था | नानणा छोड़कर पाली आये थे, पाली से जैसलमेर | अब उनके सामने खुला आसमान था | भविष्य का डरावना अन्धकार, पर अपमानित होकर जीने से तो मौत ही भली | संकटों से क्या घबराना? वे चल दिए अज्ञात दिशाओं में | 

साहित्यकारों ने सदियों बाद उस दर्द को पहचाना | कथाकार ओमप्रकाश भाटिया की कलम क्या कह रही है, आओ सुनते हैं ?—

       ‘सबके साथ आसमान भी रोया पर ऐसा कोई हाथ न उठा जो उन्हें जाने से रोकता | उन्हें कहता तुम इस मरू भूमि को स्वर्ग बनाने वालेकारीगर हो | इस रेगिस्तान को शापमुक्त कर सरसब्ज बनाने वाले, तुम न जाओ | तुमने इस भूमि के भविष्य का निर्माण किया है, तुम न जाओ | तुमने दूर - दूर तक इसकी कीर्ति बढ़ाई है, तुम न जाओ | तुम भी तो इसी माटी की संतान हो| तुम्हारा शरीर भी इसी धरती, आकाश, हवा, पानी और अग्नि से बना है, तुम न जाओ | पर, कोई नहीं आया | वे चलते रहे, चलते रहे और एक ही रात में रियासत छोड़ गये ! ....पालीवालों के गाँवों में जो दूसरी जाति के लोग थे वे भी उन्हीं के साथ चले गये | जिनके साथ पीढ़ियों से सुख-दुःख बांटा अब इस घड़ी में उन्हें अकेला कैसे जाने दें ? नाई, सुथार, दर्जी, सुनार, कुम्हार, चमार, मेघवाल, भील जो भी थे सभी उनके साथ उन्हीं की तरह एक ही रात में भरा-पूरा घर, जमीन-जायदाद छोड़कर चल दिए| जाने के बाद वह किसी भी जाति का था, अपने को पालीवाल ही बताया | इसका मतलब यह नहीं कि वे ब्राह्मण बन गये | वे वही रहे जो वे थे | सिर्फ उस  दुखद याद को अविस्मरणीय बनाने के लिए ही वे पालीवाल बन गये | 

उस रात कहीं पता चला कहीं नहीं भी | पर सुबह जब सिपाहियों के घोड़े जमीन रोंदते गाँवों में पहुंचे तो उन्हें पशुओं के अतिरिक्त कोई न मिला |गायें, बछड़े, ऊँट, भेड़-बकरियाँ, मेमने अपने मालिकों की तलाश में मिमियाते, रंभाते घूम रहे थे | पगबावड़ियां, तालाब, पोखर, ग्वाड़-गलियाँ सब सूने | घर खुले और सामान से भरे हुए | अंदर जाकर पुकारा तो ऐसा लगा जैसे अभी कोठे में से निकल कर बाहर आ जाएगा | चूल्हे की राख बुझी भी नहीं थी | पलींडे पर मटकियाँ भरीं थीं | पास में लोटा, घड़ा, पाटिया, बाल्टी पड़ी थीं| कोठे में कोठारिये, कठोंतरे, टांड़ें भरी पड़ी थीं – कपड़ों, बिस्तरों, बर्तनों और धान से | कितना ले जा सकते थे एक बैलगाड़ी पर | सभी कुछ तो छूट गया था |’ 

     आज भी लोकगीतों में उस ओळूँ (याद) की करुण-पीड़ा कसक उठती है –

  ‘रावळ म्होंने अेकर जैसाणों बता ||

राकस आळी रीत ,कंस आगै कांई कैवणौ ?

पल्लियों सूं तोड़ी प्रीत, मोहते जैसलमेर रे ||

  ‘रावळ म्होंने अेकर जैसाणों बता |’

जैसांणै रा डूंगरिया आवै म्होंने याद |

पल्ली रै सिधाया परदेसों, राजाजी सों करै हमें रोस |

मूलक छूटो मुरधर रौ, दीजै रे करमों नै दोस ||

बामण खैड़ै री बाँभणी रे, खाभै री हरजाळ ||

    खावण मीठोड़ी बाजरी, लीला म्होंजा धड़ीयै रा तूस |

‘रावळ म्होंने अेकर जैसाणों बता |’

गेहूं काठा होंजी खड़ींण रा, बण रूड़ा रे खडाळ |

बछड़ा चूंगते छोडिया , हालिया रे पालीवाळ |

‘रावळ म्होंने हड़ोंकौ रे जैसाणों बता |’

जैसांणै रा कूंगरिया आवै म्होंने घणैरा याद |

‘रावळ म्होंने अेकर जैसाणों बता |’

‘रावळ म्होंने अेकर गड़ियोंणों बता |’

( हे रावल ! हमें एक बार जैसलमेर दिखा दे | राक्षस वाली रीति और कंस के आगे क्या कहना? पालीवालों से जैसलमेर के दीवान ने प्रीत तोड़ दी | जैसलमेर के कंगूरे हमें बहुत याद आते हैं | राजाजी से रुष्ट होकर हम परदेस में भटक रहे हैं, मरुधर देश छूट गया है, यह अपने कर्मों का ही दोष है | बामण खैड़ै में ब्राह्मणी मस्त रहती थी और खाभे (भावनगर) में हरजाल आन्नदमय जीते थे | वहां मीठी बाजारी खाने को थी और मेरे रेतीले   टीलों पर लीले तूस (एक खारा फल जिसे पशु खाते  थे ) बिखरे रहते थे| हे रावल ! हमें एक बार हमारा जैसलमेर दिखा दे| खड़ीणों में काठिये गेहूं होते थे और खडाळ (एक अंचल ) में खूबसूरत बनस्पति होती थी | हमने ऐसी जगह को चून्घते गाय-बछड़ों सहित छोड़ दिया और हम चल पड़े | हे रावल ! हमको एक बार बस हमें एक बार जैसलमेर दिखा दे| हमें एक बार गड़ीसर(तालाब घडसीसर) दिखा दे हे हमारे रावल ! जैसलमेर के डूंगरों- पर्वतों की हमें बहुत याद आती है | ) साभार: डॉ आईदान सिंह जी भाटी साहब ।

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